माँ पिताजी: बस याद कर सकता हूँ
माँ और पिताजी
उनको याद करने या उनके बारे मे लिखने का मेरा तो कोई हक भी नही बनता। मैंने अपने काम से उन्हें सदा दुःख ही दिया है। कोई लम्हा याद नही जब मैंने उन्हें कोई सुख दिया। दसवी कक्षा पास करने के बाद घर छुट गया और साथ ही माँ पिताजी का साथ भी इक तरह से छुट गया। बहुत कष्ट सह कर मैंने अपनी पढ़ाई पुरी की, ट्यूशन पढाया, और भी कई सारे काम किये। किसी तरह से जिंदगी को जीने भी लगा।
घर छोड़ने के बाद माँ पिताजी से सम्बन्ध बहुत औपचारिक सा हो गया। अपनी पढ़ाई, ट्यूशन और करियर के चक्कर मे उलझा घर से दूर होता चला गया; विडम्बना ये भी है कि किसी ने मुझे वापस बुलाने की कोशिश भी नही की। नए शहर मे इस रिश्तों की कमी को मैंने हमेशा महसूस किया और दूसरों मे इसका पूरक ढुंढने की कोशिश की पर सफल नही हो सका।
आज भी माँ पिताजी की याद बहुत आती है, पर जानता हूँ कि मै इस लायक भी नही कि उनसे माफी भी मांग सकू पर हाँ ये सच है कि दिल से हमेसा मैंने माँ पिताजी की इज्जत की है और जो मेरे बहुत करीब रहे है वो इस बात को जानते है कि मैंने कभी इश्वर को नही मन पर दुर्गा पूजा मे मैंने हर दिन पूजा किया क्योंकि वह मुझे माँ की छवि दिखाती थी.
उनको याद करने या उनके बारे मे लिखने का मेरा तो कोई हक भी नही बनता। मैंने अपने काम से उन्हें सदा दुःख ही दिया है। कोई लम्हा याद नही जब मैंने उन्हें कोई सुख दिया। दसवी कक्षा पास करने के बाद घर छुट गया और साथ ही माँ पिताजी का साथ भी इक तरह से छुट गया। बहुत कष्ट सह कर मैंने अपनी पढ़ाई पुरी की, ट्यूशन पढाया, और भी कई सारे काम किये। किसी तरह से जिंदगी को जीने भी लगा।
घर छोड़ने के बाद माँ पिताजी से सम्बन्ध बहुत औपचारिक सा हो गया। अपनी पढ़ाई, ट्यूशन और करियर के चक्कर मे उलझा घर से दूर होता चला गया; विडम्बना ये भी है कि किसी ने मुझे वापस बुलाने की कोशिश भी नही की। नए शहर मे इस रिश्तों की कमी को मैंने हमेशा महसूस किया और दूसरों मे इसका पूरक ढुंढने की कोशिश की पर सफल नही हो सका।
आज भी माँ पिताजी की याद बहुत आती है, पर जानता हूँ कि मै इस लायक भी नही कि उनसे माफी भी मांग सकू पर हाँ ये सच है कि दिल से हमेसा मैंने माँ पिताजी की इज्जत की है और जो मेरे बहुत करीब रहे है वो इस बात को जानते है कि मैंने कभी इश्वर को नही मन पर दुर्गा पूजा मे मैंने हर दिन पूजा किया क्योंकि वह मुझे माँ की छवि दिखाती थी.
1 comments:
बडी देर करदी आपने। जो माँ-पिताजी के पास नहिं रह पाये। अरे ज़रा तो उन्हें ख़ुशी मिल जाती।
चलो अब भी तुम्हें पछ्तावा हो रहा है वो भी काफी है।अपनी सच्ची बात रख़ने के लिये अभिनंदन देती हुं।
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