मंगलवार, 30 जून 2009

वो मारवाडी परिवार...

कभी कभी जिंदगी के बीते हुए लम्हों मे डूबना उतराना बहुत प्यारा लगता है... वो बीते हुए दिन की यादें, कभी खट्टी होती हैं तो कभी मीठी पर यकीनन वो यादें मानव मन की धरोहर होती हैं
आज बैठे बैठे अपने पुराने शहर की याद गई और साथ मे याद गए वो लोग जिनके कारण मै मारवाडी समुदाय के संपर्क मे आयाआज भी याद है वो दिन जब मै मिस अनीता के साथ वह गया थाउनकी कपड़े की दुकान और साथ मे एक बुटिक भी थाउनके साथ पहली बार बना संपर्क, पहली बार किसी मारवाडी समुदाय के व्यक्ति के साथ मेरा संपर्क थाइसके पहले मैंने मारवाडी समुदाय की जीवटता के साथ साथ और भी बहुत सारी बातें सुन रखा थाउनसे पहली बार बना संपर्क लंबा चला और सच तो यह है की छिटपुट ही सही आज भी कभी कभार बात हो ही जाती हैउनके द्वारा बहुत सारे मारवाडी लोगो से संपर्क और बात हुयी और उनमे के कुछ के साथ करीबी रिश्ता भी बनाएक परिवार के साथ कुछ ज्यादा ही करीब हुआ, और हाँ मैंने अपने पिचले ब्लॉग मे अपनी बहन के बारे मे बात की थी, वो भी मारवाडी ही थी
लब्बोलुआब ये की 'अकेले ही चले थे' से कारवां बनता चला गयाइस याद के साथ एक याद और जुड़ जाती है, जब मै अपने एक पहचान के लड़के के साथ बनारस गया थामेरे बनारस जाने के बारे मे सुनकर उनलोगों ने मुझे कुछ सामान दिया जो वह उनके एक रिश्तेदार को दे देना थामै जब सामान लेकर वह पंहुचा, और उस दुकान पर देने गया तो जिस ढंग से हमारा स्वागत हुआ, वो आज भी अक्सर याद जाता हैमेरे साथ गया लड़का आज भी उस बात को याद कर मुझे छेड़ता रहता हैवही जाकर मारवाडी समुदाय के बारे मे प्रचलित एक मिथ का प्रमाण भी मिलाउस दुकान मे हम दोनों से एक बार भी एक ग्लास पानी पिने के लिए भी नही पूछा गयाइतने दूर से (लगभग पॉँच सौ किलोमीटर) आने के बाद भी बैठने तक को नही कहकर, सामान लेकर हमें चलता कर दिया गया
इसके बावजूद आज भी मुझे लगता है कि किसी समुदाय के बारे मे समग्र रूप से विचारधारा की सीमा नही तय की जा सकती हैसब कुछ व्यक्तिगत आदत पर निर्भर करता है, इसका भी प्रमाण कई बार मुझे मिला, पर वो किसी अगले पोस्ट मेआज दूर हो जाने के बाद लगभग संपर्क टूट चुका है, और वे लोग भी मेरे बारे मे सुनी सुने बातों के आधार पर अपनी धारणायें बना चुके हैपर याद तो याद है और वो तो कभी भी, किसी की भी सकती है

4 comments:

संतोष अग्रवाल 30 जून 2009 को 6:53 pm बजे  

अभिषेकजी! निवेदन है कि अपने ब्लॉग का बैक-ग्राउंड कलर बदलें, पढने में बड़ी असुविधा होती है.

Udan Tashtari 30 जून 2009 को 10:18 pm बजे  

सब कुछ व्यक्तिगत आदत पर निर्भर करता है-बिल्कुल सही कह रहे हैं.

Unknown 1 जुलाई 2009 को 12:18 am बजे  

संतोष जी, आपकी बात को ध्यान में रख कर मै बैकग्राउंड का रंग बदलने की कोशिश करता हूँ, पर काला रंग रखने के पीछे एक उद्देश्य ये भी था कि काला रंग के साथ कंप्यूटर पर बिजली की खपत कम होती है, और अगर मेरे कारन 1 यूनिट बिजली भी बच सकती है तो ऐसा करने में क्या हर्ज़ है. फिर भी आपकी परेशानी को देखते हुए मै किसी दुसरे रंग का प्रयोग कर दूंगा. आपके सलाह के लिए धन्यवाद् और परमजीत बाली और उड़नतश्तरी ब्लॉग को भी टिपण्णी के लिए धन्यवाद्.

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