कन्यादान : कैसा दान?
"हिन्दू विवाह एक ऐसा बंधन है जिसमें जो शरीर एकनिष्ठ हो जाते है, किन्तु वर्तमान कानून हिन्दू विवाह की ऐसी तैसी कर दिया है। हिन्दू विवाह को संस्कार से ज्यादा संविदात्मक रूप प्रदान कर दिया है जो हिन्दू विवाह के स्वरूप को नष्ट करता है। हिन्दू विवाह में कन्यादान पिता के रूप में दिया गया सर्वोच्च दान होता है इसके जैसा कोई अन्य दान नही है।" (साभार)

हमारे शास्त्रों मे भी कन्यादान की महिमा गई गई है। क्या औचित्य है इस दान का और इसके महातम्य का? हाड मांस की पुतला है जिसे जब चाहा गाय, बकरी की तरह दान की वस्तु बना डाला। इतना ही नही, दान की प्रक्रिया का महिमामंडन और आडम्बर इतना किया गया कि एक वक्त तो नारी को भी लगता है कि उसका दान सच मे महा दान है और उसके खातिर इतना बड़ा आयोजन किया गया है। परन्तु ये तो सामने खाने का कटोरा रख कर गर्दन पर तलवार चलने जैसा है। कब हमारी मानसिकता बदलेगी और नारी को दान की वस्तु की जगह अहसासों को समेटे एक जीवित व्यक्तिगत पहचान मिलेगा? कब उससे पूछा जाएगा कि दान करने की जगह तुम्हारे ख्याल वो अहसासों का भी अस्तित्व है? कब उससे उसकी इच्छा भी पूछी जायेगी? और कब बदलेगा आज की नारियों की आत्ममुग्धता, कब अपनी पहचान को जानकर ख़ुद को व्यक्त करना सिख पाएँगी??????
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