बुधवार, 5 नवंबर 2008

वह सम्बन्ध ही क्या जो बार-बार टूटे नहीं

"वह सम्बन्ध ही क्या जो बार-बार टूटे नहीं। सम्बन्ध, एक बनावटी रिश्ता, जिससे चाहे जोड़ लो, जिससे चाहे तोड़ लो। निरन्तर बनना बिगड़ना ही इनकी नियति है।"
मेरे द्वारा रिश्तों पर सम्बन्ध की अहमियत देने पर यह मेरे एक दोस्त की भड़ास है। परन्तु क्या ये सच नही कि आज के समय मे जन्म से जुड़े रिश्तों से ज्यादा अपने कार्य व्यापार, रूचि और सामन्जस्य के आधार पर बने रिश्ते ज्यादा अहमियत रखते है। मेरे सामने कई एसे उदहारण पड़े है जहा मुह्बोले भाई बहनों ने सगे रिश्तों से ज्यादा एक दुसरे का साथ दिया। गोद लिए गए संतानों ने कोख से जन्मे संतानों की कमी नही महसूस होने दी। क्या यह सही नही है कि कोई भी व्यक्ति माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ आदि से ज्यादा अपने मित्रो व साथियों के साथ ज्यादा खुला होता है? क्या ये सच नही कि बहुत से खून के रिश्ते जबरन निभाए जाते है जबकि समय और परिस्थितियों के साथ बने सम्बन्ध ज्यादा प्रभावी है। आज जब संयुक्त परिवार की अवधारण ख़त्म हो रही है और ,कल परिवार की संख्या बड़ी तेजी से बढाती जा रही है, वह टूटे हुए खून के रिश्तों की जगह साथ रहने व समय पर कम देने वाले सम्बन्ध ज्यादा ताजे लगते है।
आज का सच यह है कि युवा वर्ग इन जबरदस्ती के रिश्तों से उब चुका है। अगर पारिवारिक रिश्तो मे कही बहुत ज्यादा अपनापन है तो इसका श्रेय भी खून के रिश्ते की जगह दोनों के बिच की अच्छी केमिस्ट्री को जाता है। इसका एक प्रमुख कारण ये भी है कि अब अलग अलग रह रहे परिवारों के पास एक दुसरे के साथ समय व्यतीत करने के लिए वक्त नही है। बच्चे भी पढ़ाई और कैरियर के दबाव मे रहते है और उन्ही के साथ खुल पाते है जो उनके मानसिक स्तर के है। लंबे समय तक एक दुसरे से दूर रहने का खामियाजा दरकते संबंधो के रूप मे सामने आता है। फिर साथ साथ रहने वाले बच्चे या युवा एक दुसरे से खुलते चले जाते है और एक दुसरे की पसंद नापसंद से वाकिफ होने के साथ साथ उसका ध्यान भी रखते है। ये रिश्ता दिन प्रतिदिन मजबूत होता चला जाता है और खून के रिश्ते बस निभाने के लिए रह जाते है।
एक दुसरे के साथ बिताया गया समय जहा दो व्यक्तियों को एक दुसरे के नजदीक लता है वही अगर विपरीत लिंग के हुए तो धीरे धीरे यह सम्बन्ध प्यार का रूप लेना शुरू कर देता है। वास्तव मे इन रिश्तों के आरम्भ मे प्यार जैसी कोई बात ही नही होती है। परन्तु समय गुजरने के साथ जब एक दुसरे का साथ पसंद आने लगता है और ज्यादा समय गुजरने के बाद जब एक दुसरे से पूर्ण रूप से खुल जाते है तो लगता है कि एक दुसरे के साथ जीना ज्यादा आसन होगा। और यही से प्यार की शुरुआत हो जाती है।
परन्तु आरंभ मे जैसा मेरे मित्र ने कहा कि ये सम्बन्ध ऐसा होता है कि जब चाहे जोड़ लो और जब चाहे तोड़ लो, मई पूछना चाहूँगा कि इसमे बुराई क्या है? अगर सम्बन्ध या रिश्ते दुःख देने लगे तो उन्हें ढ़ोते रहने कि जगह उनसे मुक्ति पा लेने मे क्या हानि है? अगर रो रो कर रिश्ता चलने और गाली दे दे कर रिश्तेदारों के साथ रहने से ही रिश्ते चलते है तो मई ऐसे रिश्तों को दूर से ही प्रणाम करता हूँ और अपने दोस्त को एक सलाह भी देना चाहता हूँ कि कभी बनाये हुए (सम्बन्ध कभी बनाये नही जाते बल्कि बन जाते है ... स्वत स्फूर्त प्रक्रिया) संबंधो के साथ खुल कर जिए और तब बताये क्या सच है .

1 comments:

Unknown 13 दिसंबर 2008 को 11:16 am बजे  

han ye sach hai ki aajkal hum khun ke riste se jyada apne dosto ke sath hi jayada close hain bt sayad isliye ki hum apni sari bate apne sis bro se nahi kar pate.....
apke last line " sambandh jab chahe jod lo jab chahe tod lo to isme burai hi kya hai" bilkul hi galat hain.aap bilkul hi galat sochte ho .kya matlab ki jab riste ya sambndh dukh dene lage to unhe dhone ki jagah unse mukti pana hi sahi hai.i dont knw aap esa kyun sochte ho bt dukh kahan nahi hota.kya apki mumma ya papa ya apke bhai bahan ke riste me dukh nahi par kya iska matlab aap unse mukti pa loge.life me fir bachega kya.kewal sukhi hona hi life nahi hai.kewal haste rahan hi jeewan nahi hai.hsate haste to hasne ka importance hi bhul jaoge.kabhi koi rista ya sambndh bhar nahi hote jinhe aapko dhona pade.har riste me kuch karwahat hai to unme hi mithas v hai.jab kabhi aap kisi ke karan rote ho iska matlab ye nahi ki riste tod lo.sare riste sare sambndh bahut hi pyare hote hain . kabhi koi sambhndh toot ta nahi han bas kuch samy ke liye hum us se dur ho jate hain bt fir wahi apna hota hai..........
sambandho ke bina jeewan hi nahi hai..........
aap kewal apne liye kabhi nahi ji sakte .....

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