दो प्रेमी युगल के बिच सैंडबीच बना मै...
कई बार सच इतना कड़वा होता है कि सामने होते हुए भी सच को स्वीकार करना कठिन हो जाता है। कभी हम सोच भी नही सकते कि हमारे द्वारा दिए जा रहे स्वतंत्रता का उपयोग बच्चे किस प्रकार कर रहे है। मैंने तो इसे अपनी आँखों से देखा और भुक्तभोगी रहा दो महीनो तक।
अपने शहर से दिल्ली के लिए पलायन किया तो सबसे पहला प्रश्न रहने के ठिकाना का था। और इस प्रश्न का हल बड़ी सुगमता से मिल गया। पहले से परिचित एक जूनियर ने बनारस के एक लड़के के साथ कमरा दिला दिया। अच्छा लड़का था और सबसे बड़ी बात कि मेरे ही कार्य क्षेत्र मतलब हार्डवेयर और नेट्वर्किंग से जुडा था। दो तिन माह कब गुजर गए पता ही नही चला। इस बिच दोनों ने साथ मे कमरा भी बदल लिया। पहले से बड़ा व हवादार कमरा था। सब सही चल रहा था (हाँ, इस बिच मेरी जिंदगी मे सब बुरा ही हो रहा था, सब साथ एक एक कर छुट रहे थे)। होली के समय मेरे साथ रह रहे (चलो एक नाम दे देते है, विनय) विनय को घर जाना पड़ा। घर से वापस लौटने पर उसके साथ उसकी गर्लफ्रेंड भी कमरे पर आ गई। चलो अच्छा लगा कि मेरा साथी अपने प्यार के लिए समर्पित है और अपनी गर्ल फ्रेंड को काफी मानता है। परन्तु उसकी दोस्त को शायद कमरा ज्यादा ही पसंद आ गया और दिन के साथ उसकी रात भी मेरे ही कमरे पर बिताने लगी। अब दो प्रेमी हो, एक बिस्तर हो, रात का अँधेरा तो समझ ही सकते है, पर मेरी हालत ख़राब रहती थी। सोने की कोशिश करो तो आवाज के कारण नींद नही आती। और तुर्रा ये कि सुबह 7 बजे उठकर ऑफिस जाना होता था। हर दिन विनय कहता कि 1-2 दिन मे वो चली जायेगी पर वो 1-2 दिन आ ही नही रहा था।
अभी तक तो करेला ही था पर नीम का आना बाकि था। अब उसके साथ उसके कमरे पर रहने वाली लड़की भी आने लगी थी और 1-2 दिन यूँ ही आने जाने के बाद उसकी रात भी इसी कमरे पर कटने लगी। विनय का कभी प्रयास रहता कि मई उसमे दिलचस्पी लेना आरम्भ कर दू। पर मेरे लिए तो जानू के अलावा कोई लड़की नही है जिसके लिए कोई कोना बचा हो। थक कर उसने प्रयास करना बंद कर दिया। इसी बिच मेरे उसी जूनियर का आना हुआ जिसने मुझे कमरा दिलाया था और उसके साथ उस लड़की का जोड़ी बन गया। अब एक छोटे से कमरे मे दो कपल और सैंडवीच बना मै। सारी रात कमरे मे कामसूत्र के असम लगते और मै रात के 2 बजे तक बहार घूमता और उसके बाद आकर किसी तरह से सोने की कोशिश करते हुए 7 बजे जागकर ऑफिस के लिए भाग निकलता।
इतना सब होते हुए भी मै कोशिश कर रहा था कि कमरा छोड़ने की नौबत नही आए। दिल्ली आने पर जिस जगह पहला ठिकाना बना उसे यूँ ही छोड़ देने का दिल नही कर रहा था। पर स्थिति बाद से बदतर होती जा रही थी। नींद पुरा नही होने से मै बीमार सा रहने लगा था। इस तरह से दो माह बीत गए। अभी भी विनय हर दिन कहता कि अज या कल वो चली जायेगी। पर ना वो आज आ रहा था ना ही कोई कल। अंत मे मैंने कमरा छोड़ने का निश्चय कर लिया और जून माह मे अपना कमरा बदल लिया। आज संयोग से रस्ते मे विनय से मुलाकात हो गई और पता चला कि अभी भी सब उसी कमरे मे रह रहे है।
अच्छा हुआ जो मैंने अपना ठिकाना बदल लिया। पर मन मे कुछ प्रश्न बुरी तरह से घूम रहे है। क्या बच्चे माता पिता के दिए स्वतंत्रता के दुरपयोग नही कर रहे? क्या माता पिता अपने बच्चों के ऊपर अन्धविश्वाश कर उन्हें गलतिया कराने के लिए खुला नही छोड़ रहे? मैंने दो माह तक जो देखा वह प्यार नही बस वासना का ज्वार था। मेरा जूनियर जो अपने कम मे लगा था, लड़की के साथ सोने के लिए परीक्षा की तयारी करने की बजे उसके हाथ पैर की मालिश मे लगा रहता था। शायद भारत का सामाजिक ताना बना तेजी से बदल रहा है, पर बदलाव की लहर न हो कर ये सुनामी का तेज तूफान दिख रहा है जहा हर संस्कार बहे चले जा रहे है। मैंने दिल्ली आईआईटी और आसपास के क्षेत्रों मे चल रहे खेल को बहुत अच्छे से देखा। हो सकता है कि छोटे शहर से आने के कारण वह के छोटे संस्कार बोल रहे हो, पर इस पतन के साथ मै सामंजस्य नही बिठा पा रहा हूँ। हाँ इतना जरुर है कि आज की पीढी इसे बहुत सामान्य तरीके से ले रही है और इसमे उन्हें कोई बुरे नजर नही आ रहा।
अपने शहर से दिल्ली के लिए पलायन किया तो सबसे पहला प्रश्न रहने के ठिकाना का था। और इस प्रश्न का हल बड़ी सुगमता से मिल गया। पहले से परिचित एक जूनियर ने बनारस के एक लड़के के साथ कमरा दिला दिया। अच्छा लड़का था और सबसे बड़ी बात कि मेरे ही कार्य क्षेत्र मतलब हार्डवेयर और नेट्वर्किंग से जुडा था। दो तिन माह कब गुजर गए पता ही नही चला। इस बिच दोनों ने साथ मे कमरा भी बदल लिया। पहले से बड़ा व हवादार कमरा था। सब सही चल रहा था (हाँ, इस बिच मेरी जिंदगी मे सब बुरा ही हो रहा था, सब साथ एक एक कर छुट रहे थे)। होली के समय मेरे साथ रह रहे (चलो एक नाम दे देते है, विनय) विनय को घर जाना पड़ा। घर से वापस लौटने पर उसके साथ उसकी गर्लफ्रेंड भी कमरे पर आ गई। चलो अच्छा लगा कि मेरा साथी अपने प्यार के लिए समर्पित है और अपनी गर्ल फ्रेंड को काफी मानता है। परन्तु उसकी दोस्त को शायद कमरा ज्यादा ही पसंद आ गया और दिन के साथ उसकी रात भी मेरे ही कमरे पर बिताने लगी। अब दो प्रेमी हो, एक बिस्तर हो, रात का अँधेरा तो समझ ही सकते है, पर मेरी हालत ख़राब रहती थी। सोने की कोशिश करो तो आवाज के कारण नींद नही आती। और तुर्रा ये कि सुबह 7 बजे उठकर ऑफिस जाना होता था। हर दिन विनय कहता कि 1-2 दिन मे वो चली जायेगी पर वो 1-2 दिन आ ही नही रहा था।
अभी तक तो करेला ही था पर नीम का आना बाकि था। अब उसके साथ उसके कमरे पर रहने वाली लड़की भी आने लगी थी और 1-2 दिन यूँ ही आने जाने के बाद उसकी रात भी इसी कमरे पर कटने लगी। विनय का कभी प्रयास रहता कि मई उसमे दिलचस्पी लेना आरम्भ कर दू। पर मेरे लिए तो जानू के अलावा कोई लड़की नही है जिसके लिए कोई कोना बचा हो। थक कर उसने प्रयास करना बंद कर दिया। इसी बिच मेरे उसी जूनियर का आना हुआ जिसने मुझे कमरा दिलाया था और उसके साथ उस लड़की का जोड़ी बन गया। अब एक छोटे से कमरे मे दो कपल और सैंडवीच बना मै। सारी रात कमरे मे कामसूत्र के असम लगते और मै रात के 2 बजे तक बहार घूमता और उसके बाद आकर किसी तरह से सोने की कोशिश करते हुए 7 बजे जागकर ऑफिस के लिए भाग निकलता।
इतना सब होते हुए भी मै कोशिश कर रहा था कि कमरा छोड़ने की नौबत नही आए। दिल्ली आने पर जिस जगह पहला ठिकाना बना उसे यूँ ही छोड़ देने का दिल नही कर रहा था। पर स्थिति बाद से बदतर होती जा रही थी। नींद पुरा नही होने से मै बीमार सा रहने लगा था। इस तरह से दो माह बीत गए। अभी भी विनय हर दिन कहता कि अज या कल वो चली जायेगी। पर ना वो आज आ रहा था ना ही कोई कल। अंत मे मैंने कमरा छोड़ने का निश्चय कर लिया और जून माह मे अपना कमरा बदल लिया। आज संयोग से रस्ते मे विनय से मुलाकात हो गई और पता चला कि अभी भी सब उसी कमरे मे रह रहे है।
अच्छा हुआ जो मैंने अपना ठिकाना बदल लिया। पर मन मे कुछ प्रश्न बुरी तरह से घूम रहे है। क्या बच्चे माता पिता के दिए स्वतंत्रता के दुरपयोग नही कर रहे? क्या माता पिता अपने बच्चों के ऊपर अन्धविश्वाश कर उन्हें गलतिया कराने के लिए खुला नही छोड़ रहे? मैंने दो माह तक जो देखा वह प्यार नही बस वासना का ज्वार था। मेरा जूनियर जो अपने कम मे लगा था, लड़की के साथ सोने के लिए परीक्षा की तयारी करने की बजे उसके हाथ पैर की मालिश मे लगा रहता था। शायद भारत का सामाजिक ताना बना तेजी से बदल रहा है, पर बदलाव की लहर न हो कर ये सुनामी का तेज तूफान दिख रहा है जहा हर संस्कार बहे चले जा रहे है। मैंने दिल्ली आईआईटी और आसपास के क्षेत्रों मे चल रहे खेल को बहुत अच्छे से देखा। हो सकता है कि छोटे शहर से आने के कारण वह के छोटे संस्कार बोल रहे हो, पर इस पतन के साथ मै सामंजस्य नही बिठा पा रहा हूँ। हाँ इतना जरुर है कि आज की पीढी इसे बहुत सामान्य तरीके से ले रही है और इसमे उन्हें कोई बुरे नजर नही आ रहा।
2 comments:
आप वहाँ से छूट आए, यही बहुत है। जो करेंगे, भुगतेंगे। बालिगों को कौन समझा सकता है? मां बाप भी नहीं। शायद कच्ची उम्र में ही सब कुछ समझा दिया होता।
वाकेई आप ने एक गंभीर समस्या से दो चार कराया है.....मेरे को लगता है आप का पहले वाला प्रशन "क्या बच्चे माता पिता के दिए स्वतंत्रता के दुरपयोग नही कर रहे?" सही है .....दुरपयोग ही तो कर रहे है...
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