बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

नंगा सच

हाथों मे रोटिया हुआ करती थी
और साथ मे आचार
मटके मे भरे पानी से
बुझ जाती थी प्यास
मन मे उमंगें भरी
सपनो मे था सारा संसार
मिटटी की सोंधी महक मे
अपनापन था
और टिपटिप बरसते पानी मे
भाईचारा

फिर जाने कब प्यार हुआ
और रोटियां फीकी लगने लगी
अब आचार मे भी नही मिलता था
स्वाद
बिसलरी की बोतले भी
ना बुझा पाती थी प्यास
सपनो के रंग एकाकार हो गये
और बेचैनी ने ले ली उमंगों की जगह
ना जाने किस खोज मे मन भटकता था
'युरेका, युरेका कहने को तरसता था

और फिर ख़त्म हुआ ये ज्वार
अब तो रोटी भी नही चाहिये
और ना ही बर्गर या कोक
बिसलरी तो बीती, शराब से भी
नही बुझती है प्यास
सपने के रंग चले गये
मन हुआ देवदास

पर ख़त्म नही हुआ इंतजार
गतिमान है जब तक समय का चक्र
यूँ ही रंगों बदलते रहेंगे जीवन के
फिर भी जीवन चलता ही रहेगा
चलता ही रहेगा
चरैवती चरैवती...

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली 18 फ़रवरी 2009 को 7:58 pm बजे  

अभिषेक जी,बहुत सुन्दर भाव है।बधाई स्वीकारें।

संगीता पुरी 18 फ़रवरी 2009 को 11:37 pm बजे  

यूंही रंग बदलते रहेंगे जीवन के
फिर भी जीवन चलता ही रहेगा
चलता ही रहेगा
चरैवती चरैवती....

Unknown 19 फ़रवरी 2009 को 1:04 am बजे  

धन्यवाद् परमजीत जी व संगीता जी. आपकी टिप्पणिया हमेशा मेरा उत्साह बढाती रही है

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