रविवार, 22 फ़रवरी 2009

भारतीय राजनीति की वर्त्तमान स्थिति

हिन्दुस्तान की आजादी के साथ ही देश के कर्णधार बने नेहरू की अपनी कोई नीति थी ही नहीं। वे साम्यवाद और ईंग्लैड को माडल मान कर देश का विकास करना चाहते थे। यही पर आजादी के पहले की कांग्रेस और आजादी के बाद के कांग्रेस के नीतियो में भिन्नता आ गयी। गांधी ने आजाद भारत में ग्राम स्वराज का सपना देखा था। उन्होने भारत की आत्मा को समझा था और तब के कांग्रेस पर उनकी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट दिखता भी था। स्वतंत्रता संग्राम के समय ही गांधी ने भारत के जनमानस को समझ कर स्वदेशी व सता के विकेन्द्रीकरण का सपना देखा था। चुनाव में जनता ने कांग्रेस की उसी विचारधारा पर विश्वास कर उसे नेतृत्व सौपा। पर नेहरू ने गांधी के सपनो के उलट भारत के विकास का एक नया माडल रखा जिसका मूल ब्रिटेन और सोवियत रूस में था।सता का विकेन्द्रीकरण नहीं करने और पारदर्शिता के अभाव में भ्रष्टाचार ने उसी वक्त जड जमाना आरंभ कर दिया था। वही जनता के प्रति सीधी जवाबदेही नहीं होने के कारण जन प्रतिनीधि जनता के सेवक की भावना को आत्मसत नहीं कर सके। नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री तक राजनीति में कम से कम बाहरी सुचीता पर ध्यान रखा गया। लोहिया, जेपी जैसे नेता राजनीति में अलग विचारधारा रखते हुये भी आम जनता से जुडे थे। वे जनता को झकझोरने की क्षमता रखते थे। परन्तु उसके बाद राजनीति वैचारिक प्रतिबद्धता की जगह सता सुख भोगने की माध्यम बन गयी।
इंदिरा गांधी के समय में यह स्पष्ट रूप से दिखने लगा था कि काग्रेस की एकमात्र नीति सता में बने रहना है। इसके लिये संवैधानीक या असंवैधानीक रास्तो के बीच की लकीर मिटाने का श्रेय इंदिरा गांधी को ही जाता है। कांग्रेस में भी विभाजन हुआ और बाद में जब कामराज ने भी अलग रास्ता पकड लिया तो इंदिरा ने संजय गांधी को भी राजनीति में उतारा। वही कांग्रेस में वंशवाद और उसके एक व्यक्ति पर आधारित होने की लाचारी स्पष्ट हो चुकी थी। बाद में संजय की महत्वकांक्षा बढ़ने के साथ उनका किस प्रकार दमन किया गया, यह अलग किस्सा है। यही समय था जब राजनीति में बने रहने के लिये सुचिता को दरकिनार कर देना एक शर्त बन गयी। इस समय तक भारत की जनता का कांग्रेस से मोहभंग होने लगा था। राजनीति में कई अन्य दल भी सक्रिय होने लगे।
वैसे वामपंथी तो पश्चिम बंगाल और केरल में सता में पहले ही आ चुके थे पर वामपंथ ने कभी भारतीय जनमानस को समझा ही नहीं। नतीजा है कि अब तक वे देश के कुछ ही हिस्सों में सिमटे पडे हैं। 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया गया। वैसे आपातकाल में कुछ बहुत अच्छे भी काम किये गये। कानून व्यवस्था में सुधार और परिवार कल्याण कार्यक्रम लागु किया गया। पर जब दूबारा चुनाव हुआ तो जनता ने कांग्रेस को बुरी तरह से नकार दिया। वैसे विकल्प भी कारगर नही हो सका। जनता पार्टी के लगभग 3 साल के कार्यकाल के बाद पुनः काग्रस ही सता में आ गयी। 1984 में सता में आये राजीव गांधी ने लोगों का विश्वास अपनी तरफ खींचा।
बाद में भाजपा की सरकार के समय बदलाव की आशा आम जनता में थी। पर यह भी काम की जगह नारो में ही उलझी रह गयी। भाजपा के वैचारिक प्रतिबद्धता के बदलाव से लगता है कि सता के लिये यह भी हर संभव समझौता करने को तैयार बैठी है। वर्तमान परिदृश्य पर नजर डाले तो हर तरफ सता की दौड ही नजर आ रही है। जनता का हित और देश के लिये समग्र नीति का हर तरफ अभाव है। सता और विपक्ष अलग दिखते हुये भी आपसी हित पर एक हो जाते है।
राष्ट्रीय स्तर से लेकर क्षेत्रीय स्तर पर भी एक भी दल नहीं दिखाई देता जो भारत की प्रकृति क¨ समझ कर एक समग्र राजनैतीक दृष्टिकोण रखता हो। जो गठबंधन की राजनीति की विवशता की जगह देशहित के लिये नीति बनाये। जहां जनता से किये गये वादो को पुरा करने का एक निश्चित कार्ययोजना हो। कहीं कोई कमीज नहीं दिखती जिस पर कालीख का धब्बा नहीं लगा हो।
पर मुझे नहीं लगता कि अरण्यरोदन इसका विकल्प हो सकता है। पर आज जरूरत है ‘एकला चलो’ की। एक और एक मिल कर अनेक हो सकते है। एक दिया जलता है तो रौशनी तो होनी है ना। जब सब अपने अपने घर के सामने दिया जलाने लगे तो क्या होगा? कहां रह पायेगा अंधेरा? एक छोटा-सा पत्थर जब विशाल इमारत की नीव बन सकता है तो क्यो नहीं एक ईंसान बदलाव की तदबीर लिख सकता है?

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